जालौर के सोनगरा चौहान: इतिहास, वीरता, कान्हड़देव और जालौर दुर्ग

परिचय

राजस्थान का इतिहास वीरता, बलिदान और स्वाभिमान की गाथाओं से भरा हुआ है। यहाँ के दुर्ग, मंदिर और युद्धभूमियाँ आज भी उस स्वर्णिम अतीत की स्मृति को जीवित रखते हैं। चौहान वंश राजस्थान के सबसे प्राचीन और गौरवशाली राजवंशों में से एक था। यही चौहान वंश आगे चलकर कई शाखाओं में विभाजित हुआ, जिनमें से एक थी – सोनगरा चौहान शाखा, जिसने जालौर को अपनी राजधानी बनाया।

जालौर को मध्यकालीन राजस्थान में “सिरोल” या “जबलिपुर” नाम से भी जाना जाता था। इसे दुर्गनगरी भी कहा जाता है, क्योंकि यह दुर्ग इतना मजबूत था कि कई शताब्दियों तक अपराजित खड़ा रहा। सोनगरा चौहानों ने जालौर में अपने साम्राज्य की नींव रखी और अलाउद्दीन खिलजी तक यहाँ राज किया।

सोनगरा चौहान की उत्पत्ति

चौहान वंश की कई शाखाएँ थीं – अजमेर-रणथम्भौर चौहान, नाडोल चौहान, देवड़ा चौहान, और सोनगरा चौहान।

सोनगरा चौहान मूलतः चौहान वंश की ही एक शाखा थे।

सोनगरा” शब्द का अर्थ माना जाता है – सोने की खान से निकला या सोने की तरह शुद्ध।

एक मान्यता यह भी है कि सोनल या सोनगिरि पर्वत (जालौर दुर्ग) पर अधिकार करने के कारण इन्हें “सोनगरा” कहा गया।

इनकी कुलदेवी आशापुरा माता थीं, जिनका प्रमुख मंदिर आज भी जालौर और कच्छ (गुजरात) में श्रद्धा का केंद्र है।

स्थापना

जालौर में सोनगरा चौहान सत्ता की नींव कीर्तिपाल चौहान ने रखी।

कीर्तिपाल, अजयराज चौहान द्वितीय (अजमेर के शासक) के पुत्र थे।

1181–1182 ईस्वी के आसपास उन्होंने जालौर (सोनगिरि दुर्ग) पर अधिकार कर अपनी शाखा की स्थापना की।

नैनसी की ख्यात और अन्य ऐतिहासिक स्रोतों में इसका उल्लेख मिलता है।

महत्वपूर्ण तथ्य

कीर्तिपाल ने नाडोल चौहानों से अलग होकर अपनी सत्ता कायम की।

उनके वंशजों ने सिरोल (जालौर) को राजधानी बनाया और इस कारण उन्हें “सोनगरा चौहान” कहा जाने लगा।

यह शाखा 1181 ई. से लेकर 1311 ई. तक (करीब 130 वर्ष) स्वतंत्र रूप से शासन करती रही।

सोनगरा चौहान वंश के प्रमुख शासक

जालौर के सोनगरा चौहान वंश का इतिहास कई वीर और कुशल शासकों की गाथा से भरा हुआ है। यद्यपि इस शाखा की नींव कीर्तिपाल चौहान ने रखी थी, लेकिन इसके बाद उनके उत्तराधिकारियों ने इस वंश को गौरव प्रदान किया। इनमें विशेष रूप से समरसिंह, उदयसिंह, चाचिगदेव, सामंतसिंह और कान्हड़देव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

1. समरसिंह (लगभग 1182–1200 ई.)

कीर्तिपाल चौहान के उत्तराधिकारी समरसिंह थे।

उन्होंने जालौर दुर्ग को और भी सुदृढ़ बनाया।

गुजरात और मारवाड़ की राजनीति में उनकी सक्रिय भूमिका रही।

स्थानीय शासकों से युद्ध करके जालौर की सीमाओं का विस्तार किया।

2. उदयसिंह (1200–1240 ई.)

समरसिंह के बाद उनके पुत्र उदयसिंह गद्दी पर बैठे।

उदयसिंह ने प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत किया।

उन्होंने जालौर को सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टि से समृद्ध बनाया।

उनके समय में जालौर के दुर्ग की दीवारों को और ऊँचा व चौड़ा किया गया।

3. चाचिगदेव (1240–1257 ई.)

उदयसिंह के बाद उनके पुत्र चाचिगदेव शासक बने।

ये अपनी वीरता और कठोर शासन के लिए प्रसिद्ध थे।

चाचिगदेव ने अपने शिलालेखों में स्वयं को “सिरोलपति” (सिरोल के स्वामी) कहा है।

उनके काल में जालौर राज्य अपनी शक्ति के चरम पर था।

चाचिगदेव ने गुजरात के चालुक्य वंशजों और पड़ोसी राज्यों के विरुद्ध कई युद्ध किए।

4. सामंतसिंह (1257–1280 ई.)

चाचिगदेव के बाद सामंतसिंह गद्दी पर बैठे।

वे धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे और मंदिर निर्माण में उनकी विशेष रुचि थी।

जालौर दुर्ग के आसपास के क्षेत्र में कई मंदिर उनके समय में बने।

सामंतसिंह ने राज्य को स्थिर और सुरक्षित बनाए रखा।

5. कान्हड़देव (1280–1311 ई.) – अंतिम महान शासक

सामंतसिंह के बाद कान्हड़देव (या कंवर कान्हड़देव) जालौर के शासक बने।

इन्हें सोनगरा चौहान वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक माना जाता है।

उनके समय में अलाउद्दीन खिलजी ने बार-बार आक्रमण किया।

कान्हड़देव की वीरता और उनकी पुत्री वीरमदेव की कथा कान्हड़े प्रबंध में विस्तार से मिलती है।


कान्हड़देव ने खिलजी की अधीनता स्वीकार करने के बजाय स्वतंत्रता के लिए युद्ध किया।

1305 ई. : खिलजी ने पहली बार जालौर पर आक्रमण किया।

1308 ई. : सिवाणा दुर्ग पर हमला हुआ और वहाँ शाका-जौहर हुआ।

1311 ई. : जालौर पर अंतिम आक्रमण हुआ, जहाँ वीरता से लड़ते हुए कान्हड़देव वीरगति को प्राप्त हुए।


यही वह समय था जब सोनगरा चौहान वंश का अंत हुआ और जालौर पर खिलजी का अधिकार हो गया।

Noteसोनगरा चौहान वंश के ये शासक न केवल वीर और पराक्रमी थे, बल्कि उन्होंने जालौर को राजनीति, संस्कृति और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र बना दिया। विशेषकर कान्हड़देव ने अपने बलिदान और शौर्य से इस वंश को अमर कर दिया।

कान्हड़देव और अलाउद्दीन खिलजी का संघर्ष

अलाउद्दीन खिलजी की महत्वाकांक्षा

दिल्ली सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी (1296–1316 ई.) ने उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर अधिकार कर लिया था।

उसकी दृष्टि राजस्थान के सशक्त दुर्गों पर थी, क्योंकि यहाँ से गुजरात और मालवा के व्यापारिक मार्ग नियंत्रित होते थे।

रणथम्भौर, चित्तौड़, सिवाणा और जालौर – ये सभी दुर्ग उसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे।

चित्तौड़ और रणथम्भौर को जीतने के बाद खिलजी की नज़र जालौर पर पड़ी, जहाँ उस समय सोनगरा चौहान शासक कान्हड़देव शासन कर रहे थे।

कान्हड़देव की वीरता

कान्हड़देव स्वाभिमानी और पराक्रमी शासक थे।

उन्होंने खिलजी की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

वे स्वतंत्रता को गुलामी पर वरीयता देने वाले योद्धा थे।

उनके नेतृत्व में जालौर का किला पूरे राजस्थान में वीरता का प्रतीक बन गया।

सिवाणा दुर्ग का युद्ध (1308 ई.)

जालौर के अधीनस्थ सिवाणा दुर्ग रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।

यहाँ कान्हड़देव के सामंत सिवाणा नायक सोधा वीरसिंह शासन कर रहे थे।

1308 ईस्वी में खिलजी ने पहले सिवाणा पर आक्रमण किया।

लंबे घेराव के बाद जब सफलता नहीं मिली तो छल से किले को जीत लिया गया।

यहाँ एक भीषण शाका और जौहर हुआ।

वीरसिंह और उनके साथियों ने वीरगति पाई।


सिवाणा के पतन ने जालौर की सुरक्षा को भी खतरे में डाल दिया।

जालौर पर आक्रमण (1311 ई.)

खिलजी ने 1311 ईस्वी में जालौर पर चढ़ाई की।

जालौर दुर्ग की रक्षा अभेद्य थी, लेकिन खिलजी ने बड़ी सेना और युद्ध कौशल से इसे घेर लिया।

महीनों तक युद्ध चलता रहा।

अंततः जब स्थिति विकट हो गई तो कान्हड़देव ने अपने वीर राजपूतों के साथ शाका किया।

राजपूत रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए, जबकि स्त्रियों ने जौहर करके अपने सम्मान की रक्षा की।

वीरमदेव और फिरोजा की कथा

इस संघर्ष से जुड़ा एक प्रसिद्ध प्रसंग वीरमदेव और फिरोजा का है।

वीरमदेव, कान्हड़देव का पुत्र था।

अमीर खुसरो और कान्हड़े प्रबंध के अनुसार, दिल्ली सुल्तान की पुत्री फिरोजा वीरमदेव से प्रभावित होकर उससे विवाह करना चाहती थी।

लेकिन वीरमदेव ने दिल्ली जाकर इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के बजाय स्वाभिमान और स्वतंत्रता का मार्ग चुना।

वह दिल्ली की सत्ता और दासता स्वीकार नहीं करना चाहता था।


यह प्रसंग राजस्थान की गौरवगाथाओं में अमर है और राजपूती स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है।

परिणाम

जालौर का पतन हुआ और खिलजी का अधिकार स्थापित हो गया।

कान्हड़देव और वीरमदेव की शौर्यगाथा इतिहास में अमर हो गई।

यह घटना राजस्थान के चौहान वंश की सोनगरा शाखा के अंत का संकेत थी।

शाका और जौहर की परंपरा

जालौर का शाका और जौहर भारतीय इतिहास में उन गाथाओं में से है, जहाँ पराजय सुनिश्चित होने पर भी राजपूत योद्धाओं ने स्वाभिमान की रक्षा को सर्वोपरि माना।

शाका = पुरुषों का रणभूमि में प्राणों की आहुति देना।

जौहर = स्त्रियों का अग्नि-कुंड में प्रवेश कर सम्मान की रक्षा करना।


यह घटना चित्तौड़ के जौहरों की भांति ही राजस्थान की वीर परंपरा का अमिट उदाहरण है।

कान्हड़देव और जालौर की कथा केवल युद्ध और पराजय की नहीं, बल्कि बलिदान, स्वाभिमान और गौरव की है। अलाउद्दीन खिलजी की विशाल सेना के सामने भी जालौर दुर्ग ने महीनों तक संघर्ष किया और अंततः वीरता की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे आज भी राजस्थान गौरव से याद करता है।

जालौर दुर्ग और साहित्यिक स्रोत

जालौर दुर्ग का महत्व

जालौर दुर्ग राजस्थान के प्राचीनतम और अभेद्य दुर्गों में से एक माना जाता है।

इसका निर्माण सोनगरा चौहानों ने करवाया।

दुर्ग अरावली की ऊँची पहाड़ी पर बसा है और इसे “सोनगढ़” या “स्वर्णगिरि” भी कहा जाता है।

दुर्ग की प्राचीरें, विशाल द्वार और किले के भीतर बने मंदिर इस बात के साक्षी हैं कि यह न केवल सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण था बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी उतना ही समृद्ध था।

अलाई मस्जिद (अलाउद्दीन की मस्जिद)

1311 ईस्वी में जालौर विजय के बाद अलाउद्दीन खिलजी ने यहाँ एक भव्य मस्जिद का निर्माण करवाया।

इसे प्रायः अलाई मस्जिद या तोपखाना मस्जिद कहा जाता है।

इस मस्जिद की स्थापत्य शैली दिल्ली सल्तनत की वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

इसमें विशाल मेहराबें, गुम्बद और लाल पत्थर का प्रयोग देखा जा सकता है।

मस्जिद के अवशेष आज भी इस बात की गवाही देते हैं कि जालौर पर सल्तनत की सत्ता स्थापित हो चुकी थी।

जालौर का स्थापत्य और मंदिर

सोनगरा चौहानों के काल में जालौर धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा।

गजेश्वर मंदिर, माहेश्वरी मंदिर, जैन मंदिर यहाँ की प्राचीन धार्मिक धरोहरें हैं।

चौहानों ने दुर्ग के भीतर और आसपास कई मंदिरों का निर्माण करवाया।

इनमें से कई आज भी मौजूद हैं, जबकि कुछ को आक्रमणों के दौरान क्षति पहुँची।

साहित्यिक स्रोत

1. कान्हड़े प्रबंध

पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हड़े प्रबंध कान्हड़देव की वीरता और जालौर के पतन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है।

इसमें वीरमदेव और फिरोजा की प्रेमकथा, शाका-जौहर, और राजपूती स्वाभिमान का मार्मिक चित्रण मिलता है।

इसे राजस्थान के प्रबंध साहित्य की महत्वपूर्ण कृति माना जाता है।

2. नैणसी री ख्यात

मुहणौत नैणसी की ख्यात में जालौर के चौहान शासकों और उनके युद्धों का वर्णन है।

नैणसी ने कीर्तिपाल को “कितू एक महान शासक” कहा है।

उन्होंने कान्हड़देव और अलाउद्दीन खिलजी के संघर्ष का भी उल्लेख किया है।

3. अमीर खुसरो की रचनाएँ

अमीर खुसरो, जो अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी कवि थे, ने अपनी कृतियों में जालौर और सिवाणा के युद्धों का उल्लेख किया है।

उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली सल्तनत जालौर की वीरता से प्रभावित थी।

4. तारीख-ए-फरिश्ता

इतिहासकार फरिश्ता ने भी जालौर के युद्ध का विवरण दिया है।

वह लिखते हैं कि कान्हड़देव ने पराक्रम और स्वाभिमान की अद्भुत मिसाल पेश की।

जालौर का पतन और खिलजी की नीतियाँ

जालौर विजय के बाद अलाउद्दीन खिलजी ने इसका नाम “जलालाबाद” रखा।

प्रशासन की जिम्मेदारी अपने सेनापति कमालुद्दीन गुर्ग को सौंप दी।

कान्हड़देव का भाई मालदेव खिलजी की अधीनता स्वीकार कर चित्तौड़ दुर्ग के प्रशासन में नियुक्त किया गया।

इस प्रकार स्वतंत्र जालौर चौहान वंश का अंत हो गया।

Note –

जालौर का इतिहास केवल आक्रमण और पतन की गाथा नहीं है, बल्कि यह राजपूती संस्कृति, स्थापत्य, साहित्य और शौर्य का उज्ज्वल प्रतीक है।

एक ओर अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ थीं, तो दूसरी ओर राजपूती गौरव और स्वाभिमान।

जालौर दुर्ग, अलाई मस्जिद और कान्हड़े प्रबंध जैसी कृतियाँ आज भी इस गौरवशाली इतिहास की जीवंत धरोहर हैं।

सोनगरा चौहानों की सांस्कृतिक धरोहर

आशापुरा माता – कुलदेवी

सोनगरा चौहानों की कुलदेवी आशापुरा माता मानी जाती हैं।

इनके प्रमुख मंदिर –

नाडोल (पाली)

मोदरा (जालौर)

पोकरण (जैसलमेर)


आज भी आशापुरा माता को राजपूत समाज में सत्य और संकल्प की देवी माना जाता है।

यह मान्यता है कि जिस किसी ने भी माता से सच्चे मन से प्रार्थना की, उसकी इच्छाएँ पूरी होती हैं।

सांस्कृतिक योगदान

सोनगरा चौहानों ने न केवल युद्धों में वीरता दिखाई बल्कि कला, स्थापत्य और संस्कृति को भी बढ़ावा दिया।

मंदिर निर्माण, दुर्ग निर्माण और शिलालेख इनके समय की पहचान हैं।

सुधापर्वत अभिलेख में कीर्तिपाल को राजेश्वर कहा गया है।

जालौर और आसपास के क्षेत्रों में अनेक जैन मंदिर और देवालयों का निर्माण भी इनके समय हुआ।

शिक्षा और विद्या का केंद्र

प्राचीन समय में भीनमाल (जालौर जिला) शिक्षा और विद्या का प्रमुख केंद्र था।

यहाँ गणितज्ञ ब्रहमगुप्त और संस्कृत विद्वान उत्पन्न हुए।

सोनगरा चौहानों के संरक्षण में यहाँ विद्या और संस्कृति को विशेष प्रोत्साहन मिला।

वीरता और बलिदान की परंपरा

सोनगरा चौहानों का इतिहास स्वाभिमान, शाका और जौहर से भरा हुआ है।

उदयसिंह, चाचिगदेव, सामंतसिंह और विशेषकर कान्हड़देव की गाथाएँ राजस्थान के इतिहास का गौरव हैं।

कान्हड़देव और वीरमदेव ने “मरण श्रेष्ठ है, पराधीनता नहीं” की परंपरा को जीवित रखा।

जालौर का ऐतिहासिक महत्व

1. राजनीतिक दृष्टि से –

जालौर दुर्ग राजस्थान के सशक्त दुर्गों में गिना जाता था।

यह गुजरात और मालवा के बीच का रणनीतिक मार्ग नियंत्रित करता था।

2. सांस्कृतिक दृष्टि से –

जालौर और भीनमाल विद्या व संस्कृति के केंद्र थे।

यहाँ जैन और हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ।

3. धार्मिक दृष्टि से –

आशापुरा माता की आराधना आज भी यहाँ के लोगों की आस्था का प्रतीक है।

4. ऐतिहासिक दृष्टि से –

कान्हड़देव और वीरमदेव की शौर्यगाथाएँ जालौर को अमर बनाती हैं।

अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ संघर्ष ने इसे राजस्थान की गौरवगाथाओं में विशेष स्थान दिया।

निष्कर्ष

जालौर और सोनगरा चौहानों का इतिहास राजस्थान की वीरता, संस्कृति और धर्मनिष्ठा का प्रतीक है।

कीर्तिपाल से लेकर कान्हड़देव तक चौहानों ने अपनी स्वतंत्रता और गौरव की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया।

अलाउद्दीन खिलजी की विशाल शक्ति के सामने भी जालौर ने महीनों तक प्रतिरोध किया।

वीरमदेव और फिरोजा की कथा, शाका-जौहर की परंपरा और आशापुरा माता की आराधना इस गाथा को और भी जीवंत बनाती हैं।


इस प्रकार, जालौर का इतिहास केवल एक दुर्ग या राज्य की गाथा नहीं है, बल्कि यह राजपूती स्वाभिमान और त्याग का अनोखा प्रतीक है।


FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

Q1. सोनगरा चौहान वंश की स्थापना किसने की थी?
👉 सोनगरा चौहान वंश की स्थापना 1181 ई. में कीर्तिपाल चौहान ने जालौर में की थी।

Q2. सोनगरा चौहानों की कुलदेवी कौन थीं?
👉 आशापुरा माता को सोनगरा चौहानों की कुलदेवी माना जाता है।

Q3. कान्हड़देव कौन थे और उनका महत्व क्या है?
👉 कान्हड़देव जालौर के सबसे प्रतापी शासक थे। उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार करने से इंकार किया और वीरगति पाई।

Q4. जालौर का प्राचीन नाम क्या था?
👉 शिलालेखों में जालौर का प्राचीन नाम जाबालिपुर तथा दुर्ग का नाम सुवर्णगिरि (सोनगढ़) मिलता है।

Q5. जालौर पर अलाउद्दीन खिलजी ने कब आक्रमण किया?
👉 अलाउद्दीन खिलजी ने 1311 ई. में जालौर पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की।

Q6. जालौर दुर्ग में अलाउद्दीन खिलजी ने कौन सा निर्माण करवाया?
👉 खिलजी ने जालौर दुर्ग में अलाई मस्जिद (तोपखाना मस्जिद) का निर्माण करवाया।

Q7. वीरमदेव और फिरोजा की कथा किस ग्रंथ में मिलती है?
👉 कान्हड़े प्रबंध (पद्मनाभ द्वारा रचित) में यह कथा विस्तार से मिलती है।

Q8. राजस्थान में तीसरा शाका कहाँ हुआ था?
👉 राजस्थान का तीसरा शाका सिवाणा दुर्ग (1308 ई.) में हुआ था।

Q9. जालौर दुर्ग का महत्व क्या था?
👉 यह गुजरात और मालवा के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करने वाला एक सामरिक दुर्ग था।

Q10. जालौर का इतिहास राजस्थान की गौरवगाथाओं में क्यों गिना जाता है?
👉 क्योंकि यहाँ राजपूती वीरता, शाका-जौहर और स्वाभिमान का अद्भुत उदाहरण देखने को मिलता है।

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